कोरोना वायरस का संक्रमण मरीज़ों के हृदय को भी प्रभावित करता है।
ब्रिटेन के एडिनबरा यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में संक्रमितों के हृदय पर इस वायरस के असर के संकेत मिले हैं।
एडिनबरा यूनिवर्सिटी में यह अध्ययन 69 देशों के 1200 मरीज़ों पर किया गया। इनमें से आधे से ज़्यादा मरीज़ों के हृदय असामान्य देखे गए है, जबकि 15 प्रतिशत मामलों में संक्रमितों में गंभीर हृदय रोग देखे गए हैं।
उल्लेखनीय है कि इस अध्ययन में केवल उन लोगों को शामिल किया गया है जो कोविड-19 के गंभीर संक्रमण से पीड़ित थे। हालांकि ज़्यादातर मामलों में संक्रमितों में कोरोना संक्रमण के माइल्ड लक्षण ही देखने को मिलते हैं।
इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता प्रोफ़ेसर मार्क ड्वेक ने बीबीसी रेडियो 4 के टुडे कार्यक्रम में बताया कि इस रिसर्च से हमें संक्रमितों की देखभाल करने में मदद मिलेगी।
मार्क ड्वेक ने बताया, ''इन मरीज़ों के लिए हृदय में गड़बड़ी गंभीर समस्या के तौर पर देखने को मिली है। इससे उनकी जान बचने की संभावना जुड़ी हुई है, यह उनकी रिकवरी को भी प्रभावित करने वाला कारक है। अब हमें इन मरीज़ों के हृदय की भी अच्छे से देखभाल और इलाज करना होगा।''
मार्क के मुताबिक इतना ही नहीं, कोविड-19 के जिन मरीज़ों में हृदय संबंधी मुश्किलें हों उन्हें जल्दी से ठीक करने पर ज़ोर देना होगा।
इससे पहले कोरोना वायरस से स्वास्थ्य पर लंबे समय तक असर पड़ने और मस्तिष्क पर असर पड़ने की बात सामने आ चुकी है।
दक्षिण कोरिया के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा है कि तीन में से एक दक्षिण कोरियाई कोरोना मरीज़ों को गायलीड साइंस इंक की एंटीवायरल दवा रेमडेसिविर देने के बाद उनकी हालत में सुधार देखा गया है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक़, दक्षिण कोरियाई अधिकारियों ने कहा है कि अभी अतिरिक्त शोध की ज़रूरत है ताकि ये तय किया जा सके कि मरीज़ों की हालत में सुधार दवा की वजह से है या अन्य कारकों- जैसे मरीज़ों की रोग प्रतिरोधक क्षमता और दूसरे इलाज़ से आया है।
अमरीका में क्लिनिकल ट्रायल के दौरान कोरोना मरीज़ों को ये दवा इंजेक्शन के रूप में दी गई थी। इससे हॉस्पिटल में मरीज़ों के ठीक होने में लगने वाले समय में कमी आई।
इसके बाद से कोविड 19 के ख़िलाफ़ जंग में रेमडेसिविर एक बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल की जा रही है।
दक्षिण कोरिया समेत कई देश कोरोना वायरस की वजह से होने वाली बीमारियों के इलाज के लिए इस दवा का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक इस वायरस के लिए कोई वैक्सीन तैयार नहीं हुई है।
दवा बनाने वाली कंपनी गायलीड ने शुक्रवार को कहा है कि एक विश्लेषण में ये सामने आया है कि रेमडेसिविर के इस्तेमाल से बुरी तरह बीमार कोविड 19 के मरीज़ों के मरने का जोख़िम कम हुआ है।
लेकिन कंपनी ने ये भी कहा है कि इस मिलने वाले लाभों को सुनिश्चित करने के लिए व्यापक क्लिनिकल ट्रायल किए जाने की ज़रूरत है।
रूस की सेकनोफ़ यूनिवर्सिटी ने वॉलंटियर्स पर कोविड-19 की वैक्सीन के सफल परीक्षण का दावा किया है।
रूस की समाचार एजेंसी तास से बात करते हुए चीफ़ रिसर्चर्स इलीना स्मोलयारचुक ने कहा है कि शोध के नतीजे बताते हैं कि ये वैक्सीन प्रभावी है।
उन्होंने कहा, ''शोध पूरा हो गया है और ये साबित हुआ है कि ये दवा सुरक्षित है। वॉलंटियर्स को 15 जुलाई और 20 जुलाई को डिस्चार्ज कर दिया जाएगा। इलीना सेकनोफ़ यूनिवर्सिटी में क्लिनकल रिसर्च और मेडिकेसंश की प्रमुख हैं।''
यूनिवर्सिटी से डिस्चार्ज होने के बाद स्वयंसेवकों को निगरानी में रखा जाएगा। इस यूनिवर्सिटी में वैक्सीन को 18 स्वयंसेवकों के परले समूह को 18 जून को दिया गया था जबकि दूसरे समूह को ये वैक्सीन 23 जून को दी गई थी।
भारत में रूस के दूतावास ने इस संबंध में ट्वीट करते हुए इसे कोविड-19 के ख़िलाफ़ दुनिया की पहली वैक्सीन बताया है।
वहीं, भारत में बनी वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल भी चल रहे हैं। ब्रिटेन की ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी में बनी वैक्सीन भी परीक्षण के दौर में है। इसके शुरुआती नतीजे भी उत्साहवर्धक रहे हैं।
भारतीय ड्रग कंट्रोलर संस्था सीडीएससीओ ने चर्म रोग सोराइसिस के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा आइलाइज़ोमेव को कोविड-19 के उपचार के लिए इस्तेमाल किए जाने की अनुमति दे दी है।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, इस अनुमति को देते वक़्त ये कहा गया है कि इसका इस्तेमाल सिर्फ आपातकाल स्थितियों में किया जा सकता है और इसके इस्तेमाल से पहले प्रत्येक मरीज़ का लिखित स्वीकृति पत्र हासिल किया जाना ज़रूरी है।
संस्था से जुड़े एक अधिकारी ने कहा है, ''भारत में कोविड - 19 मरीज़ों पर इस दवा का क्लीनिकल ट्रायल किया गया है। एम्स के प्ल्मनोलॉजिस्ट, फार्माकोलॉजिस्ट, मेडिसिन एक्सपर्ट समेत कई अन्य विशेषज्ञों की एक समिति ने इस दवा को सांस लेने में दिक्कतों का सामना कर रहे कोविड -19 मरीज़ों में सायटोकाइन रिलीज़ सिंड्रोम के इलाज के लिए उपयुक्त पाया। इसके बाद इस दवा को अनुमति दी गई।''
विश्व स्वास्थ्य संगठन के इमर्जेन्सी प्रोग्राम के प्रमुख डॉक्टर माइक रायन ने शुक्रवार को कहा है कि नए कोरोना वायरस को पूरी तरह से ख़त्म किया जा सकेगा ऐसा नहीं लगता है।
जनेवा में ऑनलाइन संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि ''अभी जो स्थिति नज़र आ रही है उसमें ऐसा नहीं लगता कि इस वायरस को पूरी तरह से ख़त्म किया जा सकेगा।''
उन्होंने कहा, ''जिन क्लस्टर में संक्रमण के अधिक मामले सामने आ रहे हैं वहां कोरोना वायरस को फैलने से रोक कर हम महामारी के दूसरे दौर से बच सकते हैं और लॉकडाउन की स्थिति से आगे बढ़ सकते हैं।''
भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भारत में कोविड-19 की स्थिति के बारे में गुरुवार को 20 दिन के अंतराल पर मीडिया को संबोधित किया।
इस प्रेस कांफ्रेंस में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी राजेश भूषण ने बताया कि कोविड-19 के लिए भारत में दो वैक्सीन पर काम चल रहा है।
राजेश भूषण के मुताबिक इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के साथ मिलकर भारत बायोटैक इंटरनेशनल लिमिटेड और कैडिला हेल्थ केयर इन दो स्वदेशी वैक्सीन को बना रही हैं जिनका एनिमल ट्रायल पूरा कर लिया गया है। अब इनके ह्यूमन ट्रायल की तैयारी की जा रही है।
पिछले दिनों यह उम्मीद भी जताई जा रही थी कि भारत 15 अगस्त को कोरोना की वैक्सीन लाँच कर सकता है, हालांकि विशेषज्ञों ने उस दावे पर संदेह जताया है।
दुनिया भर में इस वक्त कोविड- 19 वैक्सीन के लिए सौ से अधिक जगहों पर रिसर्च किए जा रहे हैं।
डॉक्टर जूली हेल्म्स की इंटेसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में मार्च 2020 की शुरुआत में उंगलियों पर गिनने लायक मरीज़ भर्ती थे, लेकिन कुछ ही दिनों में उनका आईसीयू वार्ड कोविड-19 के मरीज़ों से भर गया।
मगर डॉक्टर जूली की चिंता इन मरीज़ों में साँस की तकलीफ़ नहीं, बल्कि कुछ और थी।
डॉक्टर जूली उत्तरी फ़्रांस में स्थित स्ट्रासबर्ग विश्वविद्यालय के अस्पताल में काम करती हैं। वो कहती हैं, ''मरीज़ बेहद उत्तेजित थे। कई को न्यूरोलॉजिकल समस्याएं थीं। मुख्य रूप से भ्रम और प्रलाप जैसी दिक्कतें। यह पूरी तरह से असामान्य और डरावना था, ख़ासकर इसलिए क्योंकि हमारे द्वारा जिनका इलाज किया गया, उनमें बहुत से लोग काफ़ी युवा थे। वे 30 से 49 वर्ष के बीच थे और कुछ तो सिर्फ़ 18 साल के थे।''
फ़रवरी में चीन के शोधकर्ताओं ने वुहान शहर के रोगियों पर एक अध्ययन के बाद यह पाया था कि ''कोरोना वायरस संक्रमण का असर लोगों के मस्तिष्क पर भी हुआ।''
चीनी शोधकर्ताओं ने कोविड-19 के मरीज़ों में जो लक्षण देखे थे, उन्होंने उन सभी को 'एन्सीफ़ेलोपैथी' का संकेत बताया था। मेडिकल की भाषा में 'एन्सीफ़ेलोपैथी' शब्द का प्रयोग मस्तिष्क में हुई क्षति के लिए होता है।
कोरोना वायरस को लेकर एक नई मुश्किल की तरफ़ वैज्ञानिकों ने संकेत दिया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक कोरोना वायरस के चलते दिमाग़ की गंभीर बीमारियां उत्पन्न हो सकती हैं, जिसका भी इलाज संभव नहीं होगा।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्चरों को कोविड-19 के 43 मरीज़ों के मस्तिष्क में गंभीर समस्याएं देखने को मिली हैं। इन मरीज़ों के दिमाग़ में सूजन पाया गया है और इनमें मनोविकृति और बेहोशी में बड़बड़ाने की आदत भी देखी गई है।
इस अध्ययन के मुताबिक मरीज़ों का दिमाग़ काम करना बंद कर सकता है, दौरे पड़ सकते हैं। इसके अलावा दिमाग़ की नसों को नुकसान हो सकता है और दिमाग़ की दूसरी मुश्किलें देखने को मिल सकती हैं।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोलॉजी के डॉ. माइकल ज़ांडी ने बताया, ''कोरोना वायरस के चलते बड़े पैमाने पर लोगों के मस्तिष्क का नुकसान होगा। संभवत 1918 वाली स्थिति ही होगी। स्पेनिश फ़्लू के बाद 1920 और 1930 के दशक में मानसिक बुखार इंसेफेलाइटिस का प्रकोप देखने को मिला था।''
बीबीसी के मेडिकल संवाददाता फर्ग्यूस वाल्श ने हाल ही में रिपोर्ट लिखी है जिसके मुताबिक कोरोना वायरस के चलते कई तरह की न्यूरोलॉजिकल मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आख़िरकार मंगलवार को यह स्वीकार किया कि कोरोना वायरस संक्रमण के हवा से फैलने के सबूत हैं।
इससे पहले वैज्ञानिकों के एक समूह ने डब्ल्यूएचओ को खुली चिट्ठी लिखकर इससे अपने मौजूदा दिशानिर्देशों में सुधार करने की अपील की थी।
डब्ल्यूएचओ में कोविड-19 महामारी से जुड़ी टेक्निकल लीड डॉक्टर मारिया वा केरख़ोव ने एक न्यूज़ ब्रीफ़िंग में कहा, ''हम हवा के ज़रिए कोरोना वायरस फैलने की आशंका पर बात कर रहे हैं।''
इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन की बेनेदेत्ता आल्लेग्रांजी ने कहा कि कोरोना वायरस के हवा के माध्यम से फैलने के सबूत तो मिल रहे हैं लेकिन अभी यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने कहा, ''सार्वजनिक जगहों पर, ख़ासकर भीड़भाड़ वाली, कम हवा वाली और बंद जगहों पर हवा के ज़रिए वायरस फैलने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि इन सबूतों को इकट्ठा करने और समझने की ज़रूरत है। हम ये काम जारी रखेंगे।''
इससे पहले तक विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता रहा है कि सार्स-कोविड-2 (कोरोना) वायरस मुख्य रूप से संक्रमित व्यक्ति के नाक और मुँह से निकली सूक्ष्म बूंदों के माध्यम से फैलता है।
डब्ल्यूएचओ ये भी कहता रहा है कि लोगों में कम से कम 3.3 फुट की दूरी होने से कोरोना वायरस संक्रमण की रोकथाम संभव है। लेकिन अब अगर हवा के ज़रिए वायरस फैलने की बात पूरी तरह साबित हो जाती है तो, 3.3 फ़ुट की दूरी और फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग के नियमों में बदलाव करना होगा।
मारिया वा केरख़ोव ने कहा कि आने वाले दिनों में डब्ल्यूएचओ इस बारे में एक ब्रीफ़ जारी करेगा।
उन्होंने कहा, ''वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बड़े स्तर पर रोकथाम की ज़रूरत है। इसमें न सिर्फ़ फ़िजिकल डिस्टेंसिंग बल्कि मास्क के इस्तेमाल और अन्य नियम भी शामिल हैं।''
क्लीनिकल इंफ़ेक्शियस डिज़ीज़ जर्नल में सोमवार को प्रकाशित हुए एक खुले ख़त में, 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों ने इस बात के प्रमाण दिए थे कि ये 'फ़्लोटिंग वायरस' है जो हवा में ठहर सकता है और सांस लेने पर लोगों को संक्रमित कर सकता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन को लिखे इस खुले खत में वैज्ञानिकों ने गुज़ारिश की थी कि उसे कोरोना वायरस के इस पहलू पर दोबारा विचार करना चाहिए और नए दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।
अमरीकी दवा कंपनी मायलिन एनवी ने कहा है कि वो एक अन्य अमरीकी दवा निर्माता गिलिएड साइंसेज़ की एंटी-वायरल दवा रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्ज़न भारतीय बाज़ार में लॉन्च करेगी जिसकी क़ीमत 4,800 रुपए होगी।
कोविड-19 के रोगियों पर परीक्षण के बाद डॉक्टरों ने पाया था कि एंटी-वायरल दवा रेमडेसिविर संक्रमित लोगों को जल्द ठीक होने में मदद करती है।
मायलिन एनवी ने भारतीय बाज़ार के लिए रेमडेसिविर की जो क़ीमत तय की है, वो अमीर देशों की तुलना में क़रीब 80 प्रतिशत कम है।
कैलिफ़ोर्निया स्थित गिलिएड साइंसेज़ ने कई जेनेरिक दवा निर्माताओं के साथ क़रार किया है ताकि रेमडेसिविर को क़रीब 127 विकासशील देशों में मुहैया कराया जा सके।
पिछले महीने ही, दो भारतीय दवा निर्माता कंपनियों - सिप्ला और हेटेरो लैब्स ने रेमडेसिविर का जेनेरिक वर्ज़न भारत में लॉन्च किया था। सिप्ला ने अपनी दवा सिपरेमी की क़ीमत पाँच हज़ार से कुछ कम तय की जबकि हेटेरो लैब्स ने अपनी दवा कोविफ़ोर की क़ीमत 5,400 रुपये तय की है।
पिछले सप्ताह ही गिलिएड साइंसेज़ ने बताया था कि विकसित देशों के लिए इस दवा को महंगा रखा गया है और अगले तीन महीने तक लगभग सारी रेमडेसिविर अमरीका में ही बेचने का क़रार हुआ है।
मायलिन एनवी के अनुसार, यह क़ीमत 100 मिलीग्राम वायल (शीशी) की है। लेकिन यह अभी स्पष्ट नहीं है कि एक मरीज़ के इलाज में ऐसी कितनी वायल लगेंगी।
गिलिएड साइंसेज़ के अनुसार, एक मरीज़ को अगर पाँच दिन का कोर्स दिया जाता है तो उसके लिए कम से कम रेमडेसिविर की छह वायल लगती हैं।
कोविड के मरीज़ों में इस दवा के बेहतर नतीजे दिखने के बाद से ही इसकी डिमांड बढ़ी हुई है।
मायलिन एनवी ने कहा है कि वो जेनेरिक रेमडेसिविर का निर्माण भारतीय प्लांट में ही करने वाले हैं और इस कोशिश में भी लगे हैं कि कम आय वाले क़रीब 127 देशों के लिए भी लाइसेंस लेकर दवा सप्लाई कर सकें।
ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया ने मायलिन की रेमडेसिविर को डेसरेम (DesRem) के नाम से मंज़ूर किया है।
भारत इस समय दुनिया का तीसरा ऐसा देश है जहाँ संक्रमण के सबसे ज़्यादा मामले दर्ज किये गए हैं।
इस वक़्त पूरी दुनिया कोविड-19 महामारी की गिरफ़्त में कराह रही है। इसके लिए नया कोरोना वायरस या SARS CoV-2 जिम्मेदार है। मानवता पर कहर बरपाने वाला ये पहला वायरस नहीं है। विषाणुओं ने कई बार मानवता को भयंकर चोट पहुंचाई है।
1918 में दुनिया पर कहर ढाने वाले इन्फ्लुएंज़ा वायरस से पांच से दस करोड़ लोग मारे गए थे। ऐसा अनुमान है कि बीसवीं सदी में चेचक के वायरस ने कम से कम बीस करोड़ लोगों की जान ले ली है।
इन उदाहरणों को देख कर यही लगता है कि वायरस हमारे लिए बड़ा ख़तरा हैं और इनका धरती से ख़ात्मा हो जाना चाहिए। लेकिन क्या ऐसा संभव है कि धरती से सारे विषाणुओं का सफ़ाया हो जाये।
लेकिन, वायरस को धरती से विलुप्त कर देने का इरादा करने से पहले सावधान हो जाइए। अगर ऐसा हुआ, तो हम भी नहीं बचेंगे। बिना वायरस के इंसान ही नहीं, इस धरती में जीवन का अस्तित्व मुमकिन नहीं है।
अमरीका की विस्कॉन्सिन-मेडिसन यूनिवर्सिटी के महामारी विशेषज्ञ टोनी गोल्डबर्ग कहते हैं, ''अगर अचानक धरती से सारे वायरस ख़त्म हो जाएंगे, तो इस धरती के सभी जीवों को मरने में बस एक से डेढ़ दिन का वक़्त लगेगा। वायरस इस धरती पर जीवन को चलाने की धुरी हैं। इसलिए हमें उनकी बुराइयों की अनदेखी करनी होगी।''
दुनिया में कितने तरह के वायरस हैं, इसका अभी पता नहीं है। पता है तो बस ये बात कि ये ज़्यादातर विषाणु इंसानों में कोई रोग नहीं फैलाते। हज़ारों वायरस ऐसे हैं, जो इस धरती का इकोसिस्टम चलाने में बेहद अहम रोल निभाते हैं। फिर चाहे वो कीड़े-मकोड़े हों, गाय-भैंस या फिर इंसान।
मेक्सिको की नेशनल ऑटोनॉमस यूनिवर्सिटी की वायरस विशेषज्ञ सुसाना लोपेज़ शैरेटन कहती हैं कि, "इस धरती पर वायरस और बाक़ी जीव पूरी तरह संतुलित वातावरण में रहते हैं। बिना वायरस के हम नहीं बचेंगे।''
ज़्यादातर लोगों को ये पता ही नहीं कि वायरस इस धरती पर जीवन को चलाने के लिए कितने इम्पॉर्टेंट हैं। इसकी एक वजह ये है कि हम केवल उन्हीं वायरसों के बारे में रिसर्च करते हैं, जिनसे बीमारियां होती हैं। हालांकि अब कुछ साहसी वैज्ञानिकों ने वायरस की अनजानी दुनिया की ओर क़दम बढ़ाया है।
अब तक केवल कुछ हज़ार वायरसों का पता इंसान को है जबकि करोड़ों की संख्या में ऐसे वायरस हैं, जिनके बारे में हमें कुछ पता ही नहीं। पेन्सिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी की मैरिलिन रूसिंक कहती हैं कि, ''विज्ञान केवल रोगाणुओं का अध्ययन करता है। ये अफ़सोस की बात है। मगर सच यही है।''
अब चूंकि ज़्यादातर वायरसों के बारे में हमें पता ही नहीं, तो ये भी नहीं पता कि कितने वायरस इंसान के लिए ख़तरनाक हैं। ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के विषाणु वैज्ञानिक कर्टिस सटल कहते हैं कि, "अगर वायरस प्रजातियों की कुल संख्या के हिसाब से देखें, तो इंसान के लिए ख़तरनाक विषाणुओं की संख्या शून्य के आस पास होगी।''
वायरस इकोसिस्टम की धुरी हैं। हमारे लिए वो वायरस सबसे महत्वपूर्ण हैं, जो बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। इन्हें फेगस कहते हैं। जिसका अर्थ है निगल जाने वाले।
टोनी गोल्डबर्ग कहते हैं कि समंदर में बैक्टीरिया की आबादी नियंत्रित करने में फेगस विषाणुओं का बेहद अहम रोल है। अगर ये वायरस ख़त्म हो जाते हैं, तो अचानक से समुद्र का संतुलन बिगड़ जाएगा।
समुद्र में 90 फ़ीसद जीव, माइक्रोब यानी छोटे एक कोशिकाओं वाले जीव हैं। ये धरती की आधी ऑक्सीजन बनाते हैं। और ये काम वायरस के बिना नहीं हो सकता। समंदर में पाए जाने वाले वायरस वहां के आधे बैक्टीरिया और 20 प्रतिशत माइक्रोब्स को हर रोज़ मार देते हैं।
इससे, समुद्र में मौजूद काई, शैवाल और दूसरी वनस्पतियों को ख़ुराक मिलती है। जिससे वो फोटो सिंथेसिस करके, सूरज की रौशनी की मदद से ऑक्सीजन बनाते हैं। और इसी ऑक्सीजन से धरती पर ज़िंदगी चलती है। अगर वायरस ख़त्म हो जाएंगे, तो समुद्र में इतनी ऑक्सीजन नहीं बन पाएगी। फिर पृथ्वी पर जीवन नहीं चल सकेगा।
कर्टिस सटल कहते हैं कि, ''अगर मौत न हो, तो ज़िंदगी मुमकिन नहीं। क्योंकि ज़िंदगी, धरती पर मौजूद तत्वों की रिसाइकिलिंग पर निर्भर करती है। और इस रिसाइकिलिंग को वायरस करते हैं।''
दुनिया में जीवों की आबादी कंट्रोल करने के लिए भी वायरस ज़रूरी हैं। जब भी किसी जीव की आबादी बढ़ती है, तो विषाणु उस पर हमला करके आबादी को नियंत्रित करते हैं। जैसे कि महामारियों के ज़रिए इंसान की आबादी नियंत्रित होती है। वायरस न होंगे, तो धरती पर जीवों की आबादी आउट ऑफ़ कंट्रोल हो जाएगी। एक ही प्रजाति का बोलबाला होगा, तो जैव विविधता समाप्त हो जाएगी।
कुछ जीवों का तो अस्तित्व ही वायरसों पर निर्भर है। जैसे कि गायें और जुगाली करने वाले दूसरे जीव। वायरस इन जीवों को घास के सेल्यूलोज़ को शुगर में तब्दील करने में मदद करते हैं। और फिर यही उनके शरीर पर मांस चढ़ने और उनके दूध देने का स्रोत बनती है।
इंसानों और दूसरे जीवों के भीतर पल रहे बैक्टीरिया को कंट्रोल करने में भी वायरस का बड़ा योगदान होता है।
अमरीका के मशहूर यलोस्टोन नेशनल पार्क की घास भयंकर गर्मी बर्दाश्त कर पाती है, तो इसके पीछे वायरस का ही योगदान है। ये बात रूसिंक और उनकी टीम ने अपनी रिसर्च से साबित की है।
हलापेनो के बीज में पाए जाने वाले वायरस इसे उन कीड़ों से बचाते हैं, जो पौधों का रस सोखते हैं। रूसिंक की टीम ने अपनी रिसर्च में पाया है कि कुछ पौधे और फफूंद, वायरस को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते जाते हैं, ताकि उनका सुरक्षा चक्र बना रहे। अगर वायरस फ़ायदेमंद न होते, तो पौधे ऐसा क्यों करते?
वायरस इंसानों का सुरक्षा चक्र बनाते हैं। कई वायरस का संक्रमण हमें ख़ास तरह के रोगाणुओं से बचाता है। डेंगू के लिए ज़िम्मेदार वायरस का एक दूर का रिश्तेदार GB वायरस C एक ऐसा ही वायरस है। इससे संक्रमित व्यक्ति में एड्स की बीमारी तेज़ी से नहीं फैलती। और अगर ये वायरस किसी इंसान के शरीर में है, तो उसके इबोला वायरस से मरने की आशंका कम हो जाती है।
हर्पीज़ वायरस हमें प्लेग और लिस्टेरिया नाम की बीमारियों से बचा सकता है। हर्पीज़ के शिकार चूहे, इन बीमारियों के बैक्टीरिया से बच जाते हैं।
वायरस हमारे कई बीमारियों से लड़ने की दवा भी बन सकते हैं। 1920 के दशक में सोवियत संघ में इस दिशा में काफ़ी रिसर्च हुई थी। अब दुनिया में कई वैज्ञानिक फिर से वायरस थेरेपी पर रिसर्च कर रहे हैं। जिस तरह से बैक्टीरिया, एंटी बायोटिक से इम्यून हो रहे हैं, तो हमें जल्द ही एंटी बायोटिक का विकल्प तलाशना होगा। वायरस ये काम कर सकते हैं। वो रोग फैलाने वाले बैक्टीरिया या कैंसर कोशिकाओं का ख़ात्मा करने में काम आ सकते हैं।
कर्टिस सटल कहते हैं कि, "इन रोगों से लड़ने के लिए हम वायरस को ठीक उसी तरह इस्तेमाल कर सकते हैं, जैसे कोई गाइडेड मिसाइल हो। जो सीधे लक्ष्य पर यानी नुक़सानदेह रोगाणुओं पर निशाना लगाएंगे, बैक्टीरिया या कैंसर की कोशिकाओं का ख़ात्मा कर देंगे। वायरस के ज़रिए हम तमाम रोगों के इलाज की नई पीढ़ी की दवाएं तैयार कर सकते हैं।''
चूंकि वायरस लगातार बदलते रहते हैं, इसलिए इनके पास जेनेटिक जानकारी का ख़ज़ाना होता है। ये दूसरी कोशिकाओं में घुस कर अपने जीन को कॉपी करने के सिस्टम पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं। इसलिए, इन वायरस का जेनेटिक कोड हमेशा के लिए उस जीव की कोशिका में दर्ज हो जाता है।
हम इंसानों के आठ प्रतिशत जीन भी वायरस से ही मिले हैं। 2018 में वैज्ञानिकों की दो टीमों ने पता लगाया था कि करोड़ों साल पहले वायरस से हमें मिले कोड हमारी याददाश्त को सहेजने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
अगर, आज इंसान अंडे देने के बजाय सीधे बच्चे को जन्म दे पाते हैं, तो ये भी एक वायरस के इन्फ़ेक्शन का ही कमाल है। आज से क़रीब 13 करोड़ साल पहले इंसान के पूर्वजों में रेट्रोवायरस का संक्रमण बड़े पैमाने पर फैला था। उस संक्रमण से इंसानों की कोशिकाओं में आए एक जीन के कारण ही, इंसानों में गर्भ धारण और फिर अंडे देने के बजाय सीधे बच्चा पैदा करने की ख़ूबी विकसित हुई।
धरती पर वायरस ये जो तमाम भूमिकाएं निभा रहे हैं, उनके बारे में अभी वैज्ञानिकों ने रिसर्च शुरू ही की हैं। हम जैसे-जैसे इनके बारे में और जानकारी हासिल करेंगे, तो हम वायरस का और बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। शायद उनसे हमें कई बीमारियों से लड़ने का ज़रिया मिले या अन्य ऐसी मदद मिले, जिससे इंसानियत ही नहीं, पूरी धरती का भला हो। इसलिए वायरस से नफ़रत करने के बजाय उनके बारे में और जानने की कोशिश लगातार जारी रहनी चाहिए।
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